Tuesday, December 22, 2020
दुर्गो की प्रकार
Saturday, December 19, 2020
16 अगस्त 1946 : कोलकाता डाईरेक्ट एक्शन
16 अगस्त 1946 सीधी कार्यावाही का दिन
मुस्लिम लीग नें मुस्लमानों के लिये पृथक राष्ट्र की मांग के लिये मुस्लमानों से सीधी कार्यवाही का आह्वान किया। लीग के नेताओं नें अपने बयानों से एक बहुत बङे कत्ले आम की नींव तैयार कर दी थी लेकिन मोहनदास गांधी की जिद और ब्रिटिश सरकार की तट्स्थता नें लाखों हिंदुओं की बलि ले ली,लाखों हिंदुओं को जबरदस्ती मुस्लमान बना दिया गया लाखों हिंदु नारियों की अस्मत लूट ली गई, लाखों हिंदुओं की जमीन जायदाद हङप ली गई और उन्हें पलायन करने को मजबूर किया गया।
लीग के नेताओं के बयानों की एक बानगी :-
1. मोहम्मद अली जिन्ना :- डाईरेक्ट एक्शन – हिंदुओं पर 100 गुणा अधिक तीव्र हो।
2. सरदार अब्दुर रब निश्तार :- पाकिस्तान केवल खुद का खुन बहा कर हासील किया जा सकता है, और अगर जरुरत हुई और हालात बने तो दुसरों का खुन बहाने से भी परहेज नहीं करेंगे।
3. नवाब जादा लियाकत अली खान :-सीधी कार्यवाही का मतलब असंवैधानिक सहारे जैसे भी हालात इजाजत दें।
4. गुलाम मुस्तफा शाह गिलानी :- पाकिस्तान कि स्थापना को रोकने की कोशिश पर किसी भी रक्त-पात का नेतृत्व करुंगा।
5. सरदार शौकत हयात खान :- पंजाब का मुसलमान अहिंसा में विश्वास नहीं करता,हमें व्यथित मत करो, अगर एक बार यह मुस्लिम शेर भङक गया तो रोक पाना मुश्किल होगा।
6. सर फिरोज खां नून :- हमनें बेहतर तरीके से बता दिया है। हम ब्रिटेन के खिलाफ लङे हैं, अगर हमें किसी केंद्रिय हिंदु राज के अंतर्गत रखा गया तो यह मुसलमानों को लज्जित करनें जैसा होगा, लोग भुले नहीं होंगे, हलाकू और चंगेज खान ने क्या किया था।
7. सर गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला जो तात्कालीन सिंध के प्रधानमंत्री थे :- कांग्रेस जब तक हमारी मांग नहीं मान लेती तब तक दोस्ती का कोई मतलब नहीं। इसके अलावा हिंदुस्तान में शांति स्थापित होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
16 अगस्त की सुबह कोलकाता के लिये मुसीबत ले कर आई। 10 बजे लाल बाजार पुलिस मुख्यालय को सुचना मिली शहर में कुछ जगह छुरे-बाजी, पथराव की घटनायें हुई हैं तथा जबरदस्ती दुकानें बंद करवाई गई हैं। ये घटनायें मुख्य रुप से राजा बाजार, केला बागान, काॅलेज स्ट्रीट, हैरिसन रोङ,कोलुटोला और बुर्रा बाजार इलाकों में हो रही थीं, जो शहर के उत्तर-मध्य भागों में केंद्रित थे। यह आर्थिक रुप से सम्पन्न हिंदु बाहुल्य क्षेत्र था।
घटना ने तब विकराल रुप धारण कर लिया जब ठीक 12 बजे मुस्लिम लीग ने आॅक्टरलोनी स्मारक में सभा शुरु की। उस समय यह बंगाल की सबसे बङी मुस्लिम विधान सभा थी। कोलकाता के विभिन्न भागों से दोपहर की नमाज के बाद मुसलमान इकट्ठा होना शुरु हो गये। सभा लगभग 2 बजे शुरु हई। इस भीङ को बङी संख्या में लोहे के सरियों व लाठियों से सुसज्जित किया गया था। उस वक्त के केंद्रिय अधिकारी के मुताबिक भीङ में 30,000 लोग शामिल थे लेकिन कोलकाता स्पेशल ब्रांच के अधिकारी जो कि मुस्लिम था के अनुसार 500,000 लोग थे। बाद के आंकङे ज्यादा प्रतीत होते हैं जो कि असम्भव सा है, स्टार आॅफ इंडिया के रिपोर्टर के अनुसार 100,000 लोग थे। पुलिस दखल ना दे यह सुनिश्चित कर लिया गया था, हलांकि पुलिस को वापिस नियंत्रण का भी कोई विशिष्ट आदेश नहीं था। तात्कालिन प्रधानमंत्री सुहारवर्दी की इस सभा की रेपोर्टींग के लिये कोलकाता पुलिस ने सिर्फ एक आशुलिपिक को भेजा था इस वजह से सुहारवर्दी के भाषण की कोई प्रतिलिपि मौजुद नहीं है। सुहारवर्दी ने सुबह के हमलों को हिंदुओं का मुसलिमों पर हमला बताया और कहा कि मुसलमानों ने सिर्फ अपनी हिफाजत की थी। सुहारवर्दी नें इस विशाल अशिक्षित भीङ को हिंदुओं पर हमला करनें तथा उनकी दुकानें लूटनें के लिये उकसाया। उत्तेजित भीङ शिघ्र ही वहाँ से निकल पङी। कुछ ही देर में सुचना मिली की हथियार बंद मुसलमान ट्रकों में भर कर हैरिसन रोङ पर पहुंच गये हैं। इस भीङ नें हिंदुओं और सिखों पर हमला कर दिया, दुकानें लूट ली गईं, कुछ लोग ईंट, शीशे की टुटी बोतलों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे। भयभित हिंदुओं तथा सिखों को पकङ-पकङ कर काटना शुरु कर दिया। हिंदुओं तथा सिखों की लाशें बिछा दी गई। कोलकाता के सहायक प्रोवोस्ट मार्शल मेजर लिटिल बाॅय के नेतृत्व में सैन्य संस्थानों, गार्ड, व इस तरह के हालात से निपटनें में विशेष रुप से सक्षम बलों नें विस्थापित व जरुरतमंद लोगो के लिये बचाव अभियान में महत्वपुर्ण कार्य किया।
17 अगस्त को मेटियाब्रज स्थित केसोराम काॅट्न में नरसन्हार का नंगा खेल खेला गया। सैयद अब्दुल्ला फारुखी (जो कि गार्ड्न रीच टेक्स्टाइल युनियन का अध्यक्ष था ) नें इलियान मिस्त्री नामक मुसलमान गुंडे के साथ एक मुस्लिम भीङ का नेतृत्व करते हुये मील परिसर में बनें कर्मचारी आवास में रह रहे मजदुरों पर धावा बोल दिया। इस भीङ नें फारुखी की शह पर
थोक में कत्ले आम मचा दिया। इस नरसन्हार 1100 हिंदुओं को काट डाला गया जिसमें 300 उङिया मजदुर भी थे।
इस नरसन्हार में 4 जिवित बच गये लोगोंं नें 25 अगस्त को फारुखी के खिलाफ मेटियाब्रज पुलिस थानें शिकायत दर्ज करवाई। उङिसा सरकार के मंत्री बिश्वनाथ दास नें केसोराम काॅट्न मील में उङिया मजदुरों की हत्या की जांच के लिये दौरा किया। कुछ सुत्र मृतकों की संख्या 7,000 से 10,000 तक बताते हैं। सभी मृतक हिंदु थे।
साम्प्रदायिक दंगे एक सप्ताह तक चलते रहे। 21 अगस्त को बंगाल को वायसराय के अधीन कर दिया गया। 5 ब्रिटिश सैनिक बटालियन तैनात की गईं जिनकी सहायता के लिये 4 हिंदु,गोरखा बटालियन भी लगाई गईं। लार्ड वावेल नें और ब्रिटिश सैनिक बुलाने चाहे मगर ज्यादा ब्रिटिश सैनिक उपलब्ध नहीं थे। 22 अगस्त को दंगों का असर कम कर दिया गया।
नोआखली में जो दंगें हुये उन्हें नोआखली नरसन्हार के रुप में जाना जाता है। यह नरसन्हार, बलात्कार, अपहरण,लूट व जबरन धर्म परिवर्तन की एक श्रंखला थी। अंग्रेजों से आजादी के साल भर पहले अक्टुबर-नवम्बर 1946 में मुसलमानों द्वारा किया गया यह नरसन्हार 2,000 वर्ग मील के विस्तृत क्षेत्र में फैल गया था। नोखावली जिले के रामगंज, बेगमगंज, रायपुर, लक्ष्मीपुर,चोगलनैया व सेंड्विप पुलिस थानों के अंतरगत तथा टिपेराह जिले के हाजीगंज, फरीद्गंज, चांदपुर,लक्सम तथा चौद्दाग्राम के थानों के क्षेत्र प्रभावित हुये थे।
10 अक्टुबर 1946 को कोजागरी लक्ष्मी पुजा के दिन शुरु हुआ हिंदुओं का नरसन्हार एक सप्ताह तक बेरोकटोक चलता रहा। इसमें 5,000 (सुत्रों के अनुसार 10,000) हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। दंगों में बचे50,000-75,000 नें कोमिला, चांदपुर, अगरतला के अस्थाई शिविरों में शरण ली। जिन्हें जबरन मुसलमान बना दिया गया था वो लोग मुस्लिम नेताओं की कङी निगरानी में जी रहे थे। उन्हें गाँवों से बाहर जानें के लिये मुस्लिम नेताओं से अनुमति लेनी पङती थी। जबरन मुसलमान बनाये लोगों को मजबुर किया गया कि वो लिख कर दें कि हमनें अपनी मर्जी से मुसलमान होना स्वीकार किया है। उन्हें मुस्लिम लीग की सदस्यता के लिये भुगतान करने को मजबुर किया गया। उन पर जिजिया लगाया गया तथा जिम्मी (एक इस्लामिक राज्य) के रुप में उन्हें संरक्षण कर देना पङा। नोआखली जिले से बंगाल विधान सभा में प्रतिनिधि हारान चौधरी घोष नें कहा था ये साधारण दंगे नही थे ये मुसलमानों द्वारा प्रायोजित हिंदुओं का नरसंहार था। डाॅ॰ श्यामा प्रसाद मुखर्जी नें कहा के यह बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा अल्पसंख्यक हिंदुओं का योजनाबद्द नरसंहार था।
मोहनदास गांधी ने नोआखली में शांति व साम्प्रदायिक सदभाव करनें के लिये 4 महिनें तक शिविर लगाया मगर यह मिशन बचे खुचे हिंदुओं में स्थाई रुप से अपनें गाँवों में पुनर्वास का विश्वास जगानें में नाकाम रहा। इस बीच कांग्रेस नेतृत्व नें विभाजन को स्वीकार कर लिया और शांति मिशन तथा राहत शिविरों को बीच में ही छोङ दिया गया। बचे हुये हिंदु आसाम,त्रिपुरा तथा बंगाल में पलायन कर गये जहाँ वो बहुसंख्यक बन सकें।
ref: https://enacademic.com/dic.nsf/enwiki/1148458
Saturday, December 12, 2020
रिश्तो_में_दरार
Thursday, December 3, 2020
शाहजहाँ और मुमताज की प्रेम कहानी : सच्चाई
आगरा के ताजमहल को शाहजहाँ और मुमताज की प्रेम कहानी का प्रतीक कहा जाता है.
लेकिन शाहजहाँ और मुमताज की प्रेम कहानी को इतिहासकार शुरू के नकारते आयें हैं. शाहजहाँ और मुमताज की कोई प्रेम कहानी नहीं थी, बल्कि इनके जीवन की सच्चाई प्रेम कहानी से बिलकुल अलग थी.
- मुमताज का असली नाम अर्जुमंद-बानो-बेगम” था, जो शाहजहाँ की पहली पत्नी नहीं थी.
- मुमताज के अलावा शाहजहाँ की 6 और पत्नियां भी थी और इसके साथ उसके हरम में 8000 रखैलें भी थी.
- मुमताज शाहजहाँ की चौथे नम्बर की पत्नी थी. मुमताज से पहले शाहजहाँ 3 शादियाँ कर चुका था. मुमताज से शादी करने के बाद 3 और लड़कियों से विवाह किया था.
- मुमताज का विवाह शाहजहाँ से होने से पहले मुमताज शाहजहाँ के सूबेदार शेर अफगान खान की पत्नी थी. शाहजहाँ ने मुमताज का हरम कर विवाह किया.
- मुमताज से विवाह करने के लिए शाहजहाँ ने मुमताज के पहले पति की हत्या करवा दी थी.
- शाहजहाँ से विवाह के पहले मुमताज का शेर अफगान खान से एक बेटा भी था.
- मुमताज शाहजहाँ के बीवियों में सबसे खुबसूरत नहीं थी. बल्कि उसकी पहली पत्नी इशरत बानो सबसे खुबसूरत थी.
- मुमताज की मौत उसके 14 वे बच्चे के जन्म के बाद हुई थी.
38-39 बरस की उम्र तक मुमताज तकरीबन हर साल गर्भवती रहीं. शाहजहांनामा में मुमताज के बच्चों का ज़िक्र है. इसके मुताबिक-
1. मार्च 1613: शहजादी हुरल-अ-निसा
2. अप्रैल 1614: शहजादी जहांआरा
3. मार्च 1615: दारा शिकोह
4. जुलाई 1616: शाह शूजा
5. सितंबर 1617: शहजादी रोशनआरा
6. नवंबर 1618: औरंगजेब
8. जून 1621: सुरैया बानो
9. 1622: शहजादा, जो शायद होते ही मर गया
10. सितंबर 1624: मुराद बख्श
11. नवंबर 1626: लुफ्त्ल्लाह
12. मई 1628: दौलत अफ्जा
13. अप्रैल 1630: हुसैनआरा
14. जून 1631: गौहरआरा
शाहजहां की बेगम मुमताज महल ने अपने 14वें बच्चे गौहर आरा के जन्म के दौरान 17 जून 1631 को दम तोड़ दिया था। मुमताज अपनी 19 साल के वैवाहिक जीवन में 10 साल से ज्यादा समय तक गर्भवती रहीं।
- 17 मई 1612 को मुमताज महल और शाहजहां की शादी हुई। उन्होंने 14 बच्चों को जन्म दिया। इनमें से आठ लड़के और छह लड़कियां थीं। इनमें सिर्फ सात ही जिंदा बचे।
- शादी के बाद मुमताज महल ने लगातार 10 बच्चों को जन्म दिया।
10वें और 11वें बच्चे के जन्म में पांच साल का अंतर था।
1627 में वो 12वीं बार गर्भवती हुईं।
दो साल बाद 1629 में 13वें बच्चे को जन्म दिया।
14वें बच्चे को 1631 में जन्म देने के दौरान 30 घंटे की प्रसव पीड़ा से जूझते हुए मुमताज ने दम तोड़ दिया था। 30 घंटे तक प्रसव पीड़ा में रहीं थीं मुमताज...
- मुमताज के मौत के तुरंत बाद शाहजहाँ ने मुमताज की बहन फरजाना से विवाह कर लिया था.
ये थी शाहजहाँ और मुमताज़ की प्रेमकहानी की सच्चाई.....
Monday, November 23, 2020
तेग बहादुर की शहीदी
- तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बडो कलू महि साका॥
- साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥
- धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥
Friday, November 13, 2020
अकबर की हकीकत
जोधाबाई और भारत के मुगल शासक अकबर की प्रेमकथा देश की सबसे बड़ी प्रेम कहानियों में गिनी जाती है लेकिन ये दोनों पति-पत्नी तो क्या प्रेमी तक नहीं थी। इतिहासकारों और कुछ गाइड्स की गलतफहमी की वजह से अकबर का नाम उन्हीं की बहु जोधाबाई के साथ जोड़ दिया गया। दरअसल जोधाबाई उनके बेटे सलीम उर्फ जहांगीर की पत्नी थी, लेकिन जोधा अकबर की प्रेम कहानी में कोई सच्चाई नहीं है।
जोधा अकबर की प्रेम कहानी अकबर को अच्छा दिखाने के लिए बनाई गई काल्पनिक कहानी ही है। अकबर पूरी दुनिया को अपना ग़ुलाम बनाना चाहता था और इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था। लेकिन उसके इस सपने में सबसे बड़ी बाधा थे राजपूत और उन सभी राजपूतों को हरा पाना अकबर के लिए कतई संभवनहीं था ।
Saturday, November 7, 2020
अद्भुत स्थापत्य कला
भारत के इतिहास के झूठ
इतिहास विषय में सबसे ज्यादा गलत तथ्यों या शख्सियतों का प्रचार प्रसार किया जाता है और इनमें सबसे ज्यादा मशहूर झूठ है :-
1.) अला उद दीन खिलजी ने हिंदुस्तान को खतरनाक मंगोलो से बचाया
अला उद दींन ने हिंदुस्तान नहीं बल्कि खुद को और अपने साम्राज्य को खुंखार मंगोलो से बचाया क्योंकि अगर मंगोल हिंदुस्तान पे कब्ज़ा कर लेते तो सबसे पहले तो खिलजी और उसके तुर्क अफ़ग़ान दरबारियो को ज़लालत और बर्बरता से बेइज़्ज़त करके मारते जिसके लिए वो कुख्यात थे , अफ़ग़ानिस्तान को तो यह लोग पहले ही मंगोलो के हाथो खो चुके थे इसलिए भाग के जाते भी कहा तो उनके लिए तो यह करो या मरो वाला सवाल था और तो और इन तुर्क अफ़ग़ानों ने कौनसा हिंदुस्तान को प्रताड़ित करने में कोई कसर छोड़ी।
2.) बाबर धर्मनिरपेक्ष शाशक था और हिंदुस्तान में आ के यहाँ का हो गया।
अगर बाबर इसे पढता तो हिन्दुस्तानियो की बेवकूफी पे ठहाका लगा के हस पड़ता। बाबर न कभी धर्मनिरपेक्ष था न उस कभी हिंदुस्तान पसंद था बल्कि उस की आत्मकथा बाबरनामा के माने तो वो भारत की सरज़मीन, नस्ल, मौसम, धर्म सबसे बेइंतहा नफरत करता था।
3.)अकबर महान था।
अकबर महान नहीं बस एक चतुर राजनेता था, एक बार अगर कोई विस्तार से अकबर के बारे में अध्ययन करे तो पायेगा की अकबर को कितना हद से ज़्यादा चढ़ाया गया है, उसकी धर्मनिरपेक्षता के उदहारण दिए जाते है, उसने भले ही जजिया और तीर्थ यात्रा जैसे कर हटाये लेकिन यह महान बादशाह अपनी सहूलियत के हिसाब से इन करो को दोबारा वसूलता था, इससे मालूम चलता है कि अकबर की धरनिर्पेक्षता इसकी आर्थिक हालात पर निर्भर करती थी।
साथ ही साथ अकबर की घिनोनी हरकते और काण्ड जैसे दारूबाजी, अफीमी, अत्यधिक कामुकता, मीना बाजार का काण्ड, अनेक नरसंघार, बच्चियो का यौन शोषण को कितनी चालाकी से छुपा दिया जाता है, ऐसा लंपट नशेड़ी कभी भी महान तो नहीं हो सकता।
4.) महाराणा प्रताप ने अकबर के हाथों अपना साम्राज्य खो दिया और भगोड़े के तरह जंगल में बाकि जीवन व्यतीत किया।
भारत के इतिहास में इससे बड़ा झूठ शायद ही कोई होगा, हमे बताया जाता है कि महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के बाद हार मान ली और बाकि ज़िन्दगी भगोड़ों की तरह जी जबकि असलियत यह है कि हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी महाराणा प्रताप ने भी कभी हार नहीं मानी और अंतिम सांस तक मुघलो से लोहा लेते रहे और अपनी जीवन के अंत तक 90 प्रतिशत मेवाड़ को मुघलो की गिरफ्त से आज़ाद करवा लिया था।
5.) औरंगज़ेब ने मुग़ल सल्तनत को दक्खन तक फैलाया
औरंगज़ेब ने मुग़ल सल्तनत को दक्खन तक फैलाने की कोशिश ज़रूर की परंतु कामयाब नहीं हो सका, दक्खन हमेशा मुग़ल सरदारों के लिए क़ब्रगाह के नाम से मशहूर रहा क्योंकि कहा जाता है जो भी मुग़ल सरदार दक्खन में स्थान्तरित किया गया मुँह की खाके ही लौटा और कई तो अपनी जान से हाथ धो बैठे और दक्खन हमेशा मुघलो के गिरफ्त से बहार ही रहा।
कहा जाता है जब औरंगजेब अपनी मृत्युशय्या पे लेटा था और अपनी आखरी सांसे गिन रहा था तो उसने अपने दक्खन के मंसूबो को अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी गलती माना था।
6.) मुग़ल काल भारत का स्वर्ण युग था।
बिलकुल गलत! मुग़ल काल भारत का स्वर्ण युग नहीं बल्कि आदिम युग था, हर विदेशी यात्री ने मुग़ल काल में भारत के आम जन में गरीबी और शासन वर्ग की अय्याशी और अत्याचार के बखान दिए है, देश का असली स्वर्ण युग गुप्त और मौर्य शासन था जब हर विदेशी यात्री ने देश की अमीरी और सम्पन्नता के बखान दिए थे।
और भी कई झूठ है जो हमे इतिहास में पढ़ाए जाते है, यह सबसे ज़्यादा प्रचलित है।
Tuesday, November 3, 2020
जनरल सगत सिंह राठौड़। PAK के करवाए 2 टुकड़े,
यह नाम है बहादुरी का। भारत के श्रेष्ठ फील्ड कमांडर और सबसे कामयाब सेनानायक का। जनरल सगत सिंह राजस्थान के वो बहादुर फौजी बेटे थे, जिनसे पूरी पाक और चीनी सेना खौफ खाती थी। पड़ोसी देशों की सेना के अलावा पुतगाली भी इनसे थरथर कांपते थे। वो बहादुर फौजी बेटा जिसने PAK के करवाए 2 टुकड़े, गोवा को 40 घंटे में कराया मुक्त
चूरू के कुसुमदेसर गांव में जन्मे जनरल सगत सिंह
राजस्थान के चूरू जिले की रतनगढ़ तहसील के गांव कुसुमदेसर के निवासी सगत सिंह का जन्म 14 जुलाई 1919 को हुआ। उनके पिता ठाकुर बृजपाल सिंह ने बिकानेर की प्रसिद्ध कैमल कोर में अपनी सेवा दी थी और पहले विश्वयुद्ध में इराक में लड़े थे। उन्होंने शुरुआती पढ़ाई वॉल्टर्स नोबल स्कूल, बिकानेर से की और बाद में डुंगर कॉलेज, बिकानेर में दाखिला लिया लेकिन अपनी ग्रेजुएशन कभी पूरी नहीं की। स्कूली शिक्षा के दौरान ही इंडियन मिलेट्री एकेडमी ज्वॉइन कर ली और उसके बाद बीकानेर स्टेट फोर्स ज्वॉइन की।
दूसरे विश्व युद्ध में इन्होंने मेसोपोटामिया, सीरिया, फिलिस्तीन के युद्धों में अपने जौहर दिखाए। सन् 1947 में देश आजाद होने पर उन्होंने भारतीय सेना ज्वॉइन करने का निर्णय लिया और सन् 1949 में 3 गोरखा राइफल्स में कमीशंड ऑफिसर के तौर पर उन्हें नियुक्ति मिल गई।
जब गोवा में किया पुर्तगाली शासन का अंत
आजादी के बाद सन 1961 में गोवा मुक्ति अभियान में सगत सिंह के नेतृत्व में ऑपरेशन विजय के अंतर्गत सैनिक कार्रवाई हुई और पुर्तगाली शासन के अंत के बाद गोवा भारतीय गणतंत्र का अंग बना। 1965 में ब्रिगेडियर सगत सिंह को मेजर जनरल के तौर पर नियुक्ति देकर जनरल आफिसर 17 माउंटेन डिवीजन की कमांड दे चीन की चुनौती का सामना करने के लिए सिक्किम में तैनात किया गया। वहां चीन की चेतावनी से अविचलित होकर सगत सिंह ने अपना काम जारी रखा और नाथू ला को खाली न करने का निर्णय लिया जिसके फलस्वरूप नाथू ला आज भी भारत के कब्जे में है अन्यथा चीन इस पर कब्जा कर लेता।
पाक सेना के 93 हजार सैनिकों को सरेंडर करवाया
वर्ष 1967 में मेजर जनरल सगत सिंह को जनरल सैम मानेकशॉ ने मिजोरम में अलगाववादियों से लड़ने की जिम्मेदारी दी, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। 1970 में सगत सिंह को लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर प्रोन्नति देकर 4 कोर्प्स के जनरल आफिसर कमांडिंग के तौर पर तेजपुर में नियुक्ति दी गई। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में सगत सिंह ने बेहतरीन युद्ध कौशल और रणनीति का परिचय दिया तथा युद्ध इतिहास में पहली बार किसी मैदानी सेना ने छाताधारी ब्रिगेड की मदद से विशाल नदी पार करने का कारनामा कर दिखाया। यह जनरल सगत सिंह के अति साहसी निर्णयों से ही संभव हुआ। इसके बाद पाकिस्तान के जनरल नियाजी ने 93,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया और बांग्लादेश आजाद हुआ। इस युदध के बाद पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए और बांगलादेश अस्तित्व में आया। सैन्य इतिहासकार मेजर चंद्रकांत सिंह बांग्लादेश की आजादी का पूरा श्रेय सगत सिंह को देते हैं।
सेना का वह अफसर जिसने बिना प्रधानमंत्री की परमिशन के 1967 में चीनी सैनिकों पर बरसा दिए थे तोप के गोले
अचानक एक सीटी बजी और चीनियों ने भारतीय सैनिकों पर ऑटोमेटिक फायर शुरू कर दिया। राय सिंह को तीन गोलियां लगीं। मिनटों में ही जितने भी भारतीय सैनिक खुले में खड़े थे या काम कर रहे थे, शहीद हो गए। फायरिंग इतनी जबर्दस्त थी कि भारतीयों को अपने घायलों तक को उठाने का मौका नहीं मिला। हताहतों की संख्या इसलिए भी अधिक थी क्योंकि भारत के सभी सैनिक बाहर थे और वहां आड़ लेने के लिए कोई जगह नहीं थी।
जब सगत सिंह ने देखा कि चीनी फायरिंग कर रहे हैं। उस समय तोप की फायरिंग का हुक्म देने का अधिकार सिर्फ प्रधानमंत्री के पास था। यहां तक कि सेनाध्यक्ष को भी ये फैसला लेने का अधिकार नहीं था। लेकिन जब ऊपर से कोई हुक्म नहीं आया और चीनी दबाव बढ़ने लगा तो जनरल सगत सिंह ने तोपों से फायर खुलवा दिया। इसके बाद लड़ाई शुरू हो गई जो तीन दिन तक चली।
जनरल सगत सिंह ने नीचे से मध्यम दूरी की तोपें मंगवाईं और चीनी ठिकानों पर गोलाबारी शुरू कर दी। भारतीय सैनिक ऊंचाई पर थे और उन्हें चीनी ठिकाने साफ नजर आ रहे थे, इसलिए उनके गोले निशाने पर गिर रहे थे। जवाब में चीनी भी फायर कर रहे थे। उनकी फायरिंग अंधाधुंध थी, क्योंकि वे नीचे से भारतीय सैनिकों को नहीं देख पा रहे थे। इससे चीन को बहुत नुकसान हुआ और उनके 300 से ज्यादा सैनिक मारे गए।
चार दिन बाद यह लड़ाई खत्म हुई। जनरल वीके सिंह ने भी इस बारे में अपनी किताब में लिखा है कि 1962 की लड़ाई के बाद भारतीय सेना के जवानों में चीन की जो दहशत हो गई थी वो हमेशा के लिए जाती रही। भारत के जवानों को पता लग गया कि वो भी चीनियों को मार सकता है।
जनरल सगत सिंह ने 26 सितंबर 2001 को ली अंतिम सांस
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण उन्हें बांग्लादेश सरकार द्वारा सम्मान दिया गया और परम विशिष्ट सेवा मेडल (पीवीएसएम) के साथ-साथ भारत सरकार द्वारा देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 30 नवंबर 1976 को रिटायर हुए जनरल सगत सिंह ने अपना अंतिम समय जयपुर में बिताया। 26 सितंबर 2001 को इस महान सेनानायक का देहांत हुआ।
बरसती गोलियों के बीच हेलीकॉप्टर लेकर उतरे
बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान वे हेलीकॉप्टर से लड़ाई का जायजा लेने जाते थे और युद्ध स्थल पर ही लैंड कर जाते थे। इस तरह के मुआयने के दौरान ही एक बार उनके हेलीकॉप्टर पर पाकिस्तानी सैनिकों ने गोलियां चलाई जिसमें पायलट भी बुरी तरह जख्मी हो गया। ऎसी स्थिति में सह पायलट ने नियंत्रण संभाला और हेलीकॉप्टर वापस अगरतला आया। बाद में जांच में पता चला कि हेलीकॉप्टर में गोलियों से 64 सुराख हो गए लेकिन फिर भी जनरल सगत सिंह पर इसका कोई असर न हुआ और वे एक दूसरा हेलीकॉप्टर लेकर निरीक्षण पर निकल पड़े। उनकी बहादुरी के अनेक किस्से भारतीय सैन्य इतिहास में दर्ज हैं और युद्ध की चर्चाओं में गर्व के साथ सुनाए जाते हैं।
Sunday, November 1, 2020
प्रतिहार , गौङ ,बल्ला ,दहिया वंश के गोत्र-प्रवरादि
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